बीती रात बैठा था
खुले आसमाँ के नीचे
अपने साये के साथ
चाँद की उजली चाँदनी
मन के दीप को
उजियारा करती रही,
उसकी रौशनी,
गहन अंधकार चिरती गई
और पैदा करती गई
विश्वास से भरा माहौल,
एहसास ने भी दिखाये
अपने करामात,
जज्बात फूटते चले गए
दीवाली की फुलझड़ियों की तरह...
सुरक्षा का घेरा भी पड़ा,
जीने की रूपरेखा की
आकृति भी दिखी,
मन के भंवर में
डुबते-उतराते से चले गए,
हल्के-हलेके ठंड माहौल में
सिमटी रौशनी और
रौशनी से लिपटा साया
क्षणों में गुजर सा गया
उस जज्बाती बीती रात का
श्रेय किसे दूं
तुम्हीं बोलो ना
Friday, December 1, 2006
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