Sunday, December 17, 2006

अपनी बात

उस दौर के अंत के पहले के पहलुओं को आज जब भी यादों की खुरपी से कुरेदता हूं, ऐसा लगता है लम्हा ठहर गया है । दर्दनाक हादसों की एक भयावह तस्वीर के साये कहीं न कहीं पास से निकल रहे हैं । शायद, तब जिंदगी को हल्के तौर पर लेने का प्रयास करता रहा है । ऐसा लगता था बांसूरी में फूंक मारकर संगीत को बस में कर लो । संवेदना, एहसास तो जैसे जाती दुश्मनों में एक थे । महत्वाकांक्षा अपने पंख फैलाये पूरी शक्ति से आसमां से जैसे चांद तोड़ लाना चाहती थी । कहते हैं न सपने बूरे-अच्छे टूटते तो हैं ही । ये मेरे लिये क्या मेरी जिंदगी के लिये सुकून वाली बात रही । लम्हा, वक्त, जगह शायद सही-सही पहचान न करा सकें लेकिन ये बात सच है । दर्द अपनी चरम सीमा पर पहूँचकर कोई रास्ते की तलाश कर रहा था । कलम जब उठी तो लगा जैसे भूचाल आ गया । दर्द ने तो जैसे पंत्तिबद्ध होने की तैयारी कर ली थी । जब-जब मन खराब होता है । यह तो मेरे जानने-पहचानने वालों में से एक हो गये हैं । मुझसे ऐसा व्यवहार रखते हैं जैसे कोई नन्हा सा बच्चा चलना सीख रहा है । मैं कृतज्ञ हूं इनका जिन्होंने मेरी जिंदगी की ऊंगली पकड़ी और मुखौटे वाली दुनिया में खड़े होने में मदद की । सचमुच जब-जब भी चिंतन में डूबता हूँ जिंदगी का भारीपन असहनीय सा हुआ जाता है लिकन सच से भागकर अब आईने से नजर चुराना नहीं चाहता । हर दर्द, गम, एहसास को पुरी शिद्दत से महसूस करना चाहता हूँ । कुछ सोच, कुछ विचार लेकर आपके समक्ष हूं । जानता हूँ, इस देश ने महान काव्य विभूतियों को जन्म देकर उनकी कृतियों का सम्पूर्ण विश्व में सम्मान कराया । मैं उन तमाम विभूतियों को इस संकलन के माध्यम से प्रणाम करता हूँ और उनके आशीर्वचनों को साध लेकर कुछ खास नहीं सिर्फ दस्तक देने का प्रयास कर रहा हूं । मेरे सारे मित्र, मेरा परिवार खास मधु का जिक्र करना चाहूंगा जिनके प्रयास से यह संकलन आप तक पहूंचाने में सफल रहा हूं ।

दर्द के आंसू, पतझड़, डूबती शाम
बेवजह, यूं ही कोई सार नहीं बनता

- अनूपम वर्मा

कवि परिचय

8 अक्टबूर 1967 को रायपुर में जन्में अनुपन वर्मा की शिक्षा-दीक्षा छत्तीसगढ़ की राजधानी में ही हुई । पंडित रविशंकर विश्वविद्यालय में गणित विषय से स्नातकोत्तर तक शिक्षा प्राप्त श्री वर्मा वर्तमान में अंर्तारष्ट्रीय पेय कंपनी पेप्सी में टैरेटरी डेवलपमेंट मैनेजर के पद पर कार्यरत हैं। तमाम व्यस्तओं के बीच उनके मानस में संवेदनाओं का जज्वा जीवित है। स्कूली शिक्षा के दौरान नाटकों में अभिनय से कला के प्रति दीवानगी अभी भी मौजूद है। छत्तीसगढ़ की पहली आर्ट-टेलीफिल्म “डेहरी के मान” में उन्होंने अपनी अभिनय क्षमता का परिचय दिया । डाक्यूमेंट्री फिल्म “स्वर्णतीर्थ-राजिम”में उन्होने शीर्षक गीत की रचना की जो शास्त्रीय संगीत पर आधारित है। श्री अनुपम वर्मा का पहला कविता संग्रह दस्तक के प्रकाशन से पहले वे रायपुर प्रेस-क्लब लोकमान्य सद्भावना समिति की कवि गोष्ठियों में अपनी कविता पाठ से अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुके हैं। कहते हैं कविता अंर्तमन की आवाज़ होती है । दस्तक में आप भावनाओं को महसूस करते है वहीं शब्दों के अद्भूत संयोजन से भी आपका परिचय होता है।

तपेश जैन

Friday, December 1, 2006

आत्मकथ्य़

// मेरी अपनी बात //
उस दौर के अंत के पहले के पहलुओं को आज जब भी यादों की खुरपी से कुरेदता हूं, ऐसा लगता है लम्हा ठहर गया है । दर्दनाक हादसों की एक भयावह तस्वीर के साये मेरे कहीं न कहीं पास से निकल रहे हैं । शायद, तब जिंदगी को हल्के तौर पर लेने का प्रयास करता रहा है । ऐसा लगता था बांसूरी में फूंक मारकर संगीत को बस में कर लो । संवेदना, एहसास तो जैसे जातिदुश्मनों में एक थे । महत्वकांक्षा अपने पंख फैलाये पूरी शक्ति से आसमां से जैसे चांद तोड़ लाना चाहती थी । कहते हैं न सपने बुरे-अच्छे टुटते तो हैं ही । ये सेरे लिये क्या मेरी जिंदगी के लिये सुकून वीली बात रही । लम्ही, वक्त, जगह शायद सही-सही पहचान न करा सकें लेकिन ये बात सच है दर्द अपनी चरम सीमा पर पहूंचकर कोई रास्ते की तलाश कर रहा था । कलम जब उठी तो लगा जैसे भूचाल आ गया । दर्द ने तो जैसे पंत्तिबद्ध होने की तैयारी कर ली थी । जब-जब मन खराब होता है । यह तो मेरे जानने-पहचानने वालों में से एक हो गये हैं । मुझसे ऐसा व्यवहार रखते हैं जैसे कोई नन्हा सा बच्चा चलना सीख रहा है । मैं कृतज्ञ हूं इनका जिन्होंने मेरी जिंदगी की ऊंगली पकड़ी और मुखौटे वाली दुनिया में खड़े होने में मदद की । सचमुच जब-जब भी चिंतन में डूबता हूं जिंदगी का भारीपन असहनीय सा हुआ जाता है लिकन सच से भागकर अब आईने से नजर चुराना नहीं चाहता । हर दर्द, गम, एहसास को पुरी शिद्दत से महसूस करना चाहता हूं । कुछ सोच, कुछ विचार लेकर आपके समक्ष हूं । जानता हूं, इस देश ने महान काव्य विभूतियों को जन्म देकर उनकी कृतियों का सम्पूर्ण विश्व में सम्मान कराया । मैं उन तमाम विभूतियों को इस संकलन के माध्यम से प्रणाम करता हूं और उनके आशीर्वचनों को साध लेकर कुछ खास नहीं सिर्फ दस्तक देने का प्रयास कर रहा हूं । मेरे सारे मित्र, मेरा परिवार खास मधु का जिक्र करना चाहूंगा जिनके प्रयास से यह संकलन आप तक पहूंचाने में सफल रहा हूं ।

दर्द के आंसू, पतझड़, डूबती शाम
बेवजह, यूं ही कोई सार नहीं बनता

0अनूपम वर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़

दिल की बात

बीज उगा नहीं,
फूटा
ज्वालामुखी स्थितियां
नजरें झुकाए
चुपचाप खड़ी रहीं,
बीज/कण-कण फैलता/ रहा माटी में
हर कण नज़्म/कविता/ग़ज़ल का रुप लेती रहीं,
जानता हूँ फसलें फैलेंगी, लहलहायेंगी
देंगी संदेश सद्भावना का
होंगी भी संवेदना से परिपूर्ण,
मैं नज़्म नहीं/दर्द बांटता हूं,
दिल की बात कहता हूं.....।

चिंतन

रात्रि-पहर,
सोच की कलम लिए
दृश्यदर्पण में गुम,
सफेद कोरे पन्ने पर
घूमती कलम,
कोई कविता नहीं
सारहीन भावनाएं
आत्मसात करती रहीं
सोच की उजली आंखें
भोर के साथ भीड़ में कहीं
खोती सी चली गईं .....।

सामंजस्य

सारी रात
सारे धर्म
जिस्म में उतरते रहे
फिर भी बेचैन थी
प्यार का मोल जानने,
सुबह
सिलवटों को देख
मुस्कराती
यह सोच
संतुष्ट होती
भले क्षणिक ही सही
अंघकार में धर्मों के
सामंजस्यता की डोर
कहीं न कहीं तो
बंधी ही थी.....।

शिकस्त

दौड़ता-भागता सूरज
दिन भर की थकान पर
घनी चादरों में
रोशनी से लिपटता
काली स्याह रात के डर से
घने झुरमुटों के बीच
दुबकते पक्षी
दिया टिमटिमाता,
सिसकता दम तोड़ गया
काली स्याह चादर पर
एक तारा बन बैठ गया
कैंसर वार्ड के उस बेड पर
‘कोई’ एक तारा और बनने
लेट गया ......।

तासीर

थी वो ऐसी मनचली,
हंसी-ठिठोली में,
विकट रूप लेती परी,
पत्थर का सर फोड़ चलीं,
धाराएं अपनी मोड़ चलीं,
कहीं झील में जाकर
गुनगुनाईं वो,
झरनों की कल-कल में
ग़ज़ल पढ़ी वो
खून से सने हाथ देख,
पत्थर यो सोचता खड़ा रहा,
क्यूं अपनी तासीर का
दूसरा पहलू लिए
भ्रम में पड़ा रहा ........।

मन

तर्जनी और अंगूठे के बीच फंसी
संवेदना की कलम से,
पानी पर तहरीर लिखी,
तुम,चुप रहना
झील अभी सोई है,
चांद पहलू में लिए
गीत, कोई गुनगुना रहा है,
तुमसे कहता हूं, तुम मत फेंकना
पत्थर झील में,
पानी में मचेगी हलचल,
झील थरथरायेगी,
भातर का दर्द भंवर में
उलझता तिरता ही जायेगा
मत मारना पत्थर
झील को शांत होने में
बरसों लग जायेंगे .......।

सफ़र

बंद कमरे में,
तेल कम होते
दिये के बीच,
बीतते क्षणों के बीच
स्थिर आंखें,
पंखा मजबूरीवश
घड़ी की टिक-टिक से
काफी पीछे, थका हुआ
भागता रहा
सूरज का उगना,
सूरज का डूब जाना,
एहसास समानांतर सा है,
कमरे के बीच की टहल
सोच, सामर्थ्य की
पराकाष्ठा को छूती है
शून्य से शून्य का सफर
फिर भी जारी है......

.....निरंतर जारी है ।

मेला

मेले में
साफगोई की बात
नहीं कर रहा कोई,
दिशाहीन होते को
पकड़ रहा नहीं कोई,
मेले की थकान में
चाट और गुपचुप खाता
कुछ भूल रहा कोई,
हवाई-झूले की ऊंचाई देखती
दो आंखें,
जगमगाते मंजर में
हजारों वोल्ट के करंट
को दौड़ते देखती
दो आँखें,
भीड़ में अपने को तलाशती दो आँखें
शायद उत्सवों की तरह
हवा को पकड़ने की बात
कर रहा है कोई ...।

फ़र्क

दंगे में हजारों
लोग मारे गये......
बस्तियां लूट गईं
जलते चूल्हे जलकर
खाक हो गये .......
खौफनाक साजिश
फिर कामयाब हो गयी .......
चश्मदीद, वार्ता में
बढ़-चढ़कर
बताते गये.....
चंद बढी़ सासों को लिये
जिंदगी घर को लौट गई
सोचता हूं,
मुझमें और आतंकी में
कोई फर्क भी है ......।

लड़की

गाँव की सरल पगडंडियां,
इमली के पत्तों ने
इशारा दिया बसंत का,
बाग में खिलती कली,
धान कूटता, रूक-रूक कर
कंधों को देता आराम,
ताई पढ़ती रही, रामायण के दोहे,
चहारदीवारी पर खींची गई
बांध बांधने की रेखा,
रस्सी कूदते, बेर खाते,
न पार कर पाई गांव का तालाब,
गांव के उस पार शहर में,
सूरज दिन में, चांद रात में
उगता रहा
रौशनी फैलाता रहा......।

नैतिकता

कैसा रुप, कैसी काया
सूरज अपनी ही किरण
से शरमाया
सितारों की महफिल में
मातम सा-छाया
चांद तन्हा ही कहीं
दूर निकल आया
हवा के पंख
कटे से लगने लगे
सच मानों कलम से
दूर भागने लगे
राजनीति सिद्धांतों से
दूर कहीं जाने लगी
आदमी खुद से ही
चेहरे छुपाने लगे
मुस्कुराहट के किस्मों के
तो जैसे बाजार लगने लगे
झूठ, सच को अपने
आईने दिखाने लगे
अपेक्षा की सार्थकता के
अंश भी विलुप्त होने लगे
विश्वास तो जैसे एक दौर
की बात हो गये ।

समय के साथ परिपक्वता
तो स्वाभाविकता का परिचय है,
लेकिन अर्थ, अविश्वास,
महत्वकांक्षा, संवेदनहीनता
के बोझ लिये लोग
समय के साथ क्या सचमुच
परिपक्व हुए जा रहे हैं
या यह कोई एक युग
बदलने का सूचक है.......।

विरासत

उत्कृष्ट समागम का समावेश
स्वप्न संजोये, हाथों से चलते हल
स्वभाव विचारों के भेद,
एक सीमा का परिवेश
कोशिश जारी......
एकरुपता के आकाश की
पैरों की थकी छाप पर
यथार्थ के उजले पांवों की
पूर्णता का अविकसित प्रश्न
मां का आंचल,
खुद के साये में खुद को जिंदा रखता
ताकता आसमां की ओर
सूरज की तीखी नज़रों को विनम्रता से देखता
बेटे को कांधों के बोझ का स्पर्श कराता
रिमझिम-रिमझिम बारिश आती
रोम-रोम में जड़ता समाती
बेटे ने दी हल्की-सी दस्तक
हल और कांधों का सब्र
हरी-भरी फसल बिना कीड़ों की,
चरमराती खाट पर बैठा,
डूबते सूरज के साथ,
कल की प्रतिक्षा में तभी लौट आया
भूत/वर्तमान रूप में
सारी लालिमा के साथ/कल की सुबह पर
विरासत का ध्यान
नदियों में ठहराव के बाद
आती बाढ़ देखता रहा.....।

सभ्य

चंद पन्नों में डूबी
संवेदना / एहसास / खिलाफत
चंद स्मृति-चिन्हों के साथ
तन्हाई और मैं
समाज में सभ्य के खिताब से
आज भी वंचित हूं ।

भेद

सारे शब्द,
टूटकर जाने लगे
आईने अब मुझसे,
चेहरे छुपाने लगे......
कोई बात नहीं
हां, मानता हूं,
आदमी, आदमी की परिभाषा
से उकताने लगे......
कैसे होगी अब भोर,
सूरज कैसे खिलखिलायेगा
कैसे दिन और रात का भेद
उस आदमी को
अब कोई समझा पायेगा......।

संभावनाएं

समतल जमी पर जब
उसने किये कई सुराख
शायद बोना चाहता
था स्वपनों का बीज....
देखना चाहता था हरियाली
पाना चाहता था
संतुष्टि की छांव
अधिकार चाहता था
घने अनुभवों का
जमीं से आकाश का
सामंजस्य न हो पाया
सुराखों को भरने पर बी
जमीं समतल न हो पाई ......।

साया

सोच की परछाईयां
उस मुकाम तक ही तो
साथ चलीं हैं, जहां से
केवल अंधेरी गलियारों
की दास्तां चली है
अंधियारे में
अब दिक्कत भी नहीं होती है
तलाशने में साये को
कभी साया मुझमें कभी मे
साये में नजर आता हूं।
सोचों के शून्य के बाद भी
मुझे मेरा मैं, मेरा साया
मिला ही है...।

वृक्ष

अंकुरण से उगा पौधा
अनुभव से गुजरता,
बनता हूआ वृक्ष
वृक्ष जिसे धूप, कभी सताती नहीं
अंधेरी रात कभी डराती नहीं
बारिश कभी रुलाती नहीं
आंधी कभी हिलाती नहीं
समर्पित मौन
जीवन को शीतलता पहुंचाता
सारी पीड़ाओं के बावजूद
कितना शांत, कितना सरल
एकाकी वृक्ष

कोख

आसमानी बादल
नशे में झूम रहा था
कोई भंवरा,
नई रौशनी में डोल रहा था
झलमिलाते बाग में कली
सखियों के संग खेल रही थी
बालों में चोटी डाले
झूले में झूल रही थी
यौवन को
लजाते हुए ढ़क रही थी
भंवरा सुगंध में
मन-मगन हो चला थी
कली के सामीप्य में
सुध-बुध खो चला था
सावन भी स्वप्नों की
सेज सजा चला था
आसमानी भीगते बादल में
आग भी शोला बन चली थी
मिलन की बेला आ चुकी थी
कली, फूल वन का
महक उठी थी
प्यार का प्रसाद कोख
से बाहर आया था
नौ महीनों में
सोच का दायरा लाया था
दिये मुस्कुरा नहीं डबडबा रहे थे
बादल कुछ ज्यादा भीगे थे
आंखों में मोती नही
खूनी धारियां दिखीं थी
हस शीश पर
तलवार की धार लगी थी
कोख ने दिया हमेशा
प्रसाद प्यार का
फिरे ये क्या हुआ ?
सोचना होगा, सोचेंगे
गहराई से फिर हम,
क्या कोख से अब सिर्फ
नफरत की आस करेंगे हम...।

विवशता

पल-पल
सिकुड़ती
चली गई जिंदगी
अस्पताल के
उस बेड पऱ
बेबस,शिथिल।
दुख-दर्द को
दामन में समेटे
पथरीले रास्तों
पर हमेशा
मुस्कुराते रही।
आज,
उसकी विवशता
मुझसे
देखी ना गई ।

मैं

शांत बैठे पानी
पर बैठा चांद
टूटे पत्ते के
गिरने पर
दूरअंदेशी का
अंदाजा दे गया ।
महत्वकांक्षा
जैसे छन्न से टूटा
कांच का कोई महल,
साये ने काली रात
में साथ ऐसे छोड़ा
जैसे रौशनी का
बाजार खत्म हुआ
जा रहा हो।
अकेले राह पक,
तन्हाई मिली
ना जाने क्यूं
उसकी बातों में
सच्चाई मिली।
इस बार कानों में
उसने फुसफुसाया कुछ,
सोच मैं दर्द से मुस्कुराया कुछ
मैं,......शब्दकोष से
निकालता गया
स्वार्थों की परिभाषा
से ऊपर उठता गया ।

समयचक्र

अतीत को / वर्तमान से
जोड़ने का साहस/जब-जब
भी मैने दिखाया है / समय चक्र ने
विकृत मानसिकता का ही
चेहरा खींचा है....
सृष्टि व्युत्पत्ति की / कोमल भावना
सिसकती सी लगती है......
कोशिश करता हूं मैं / जब-जब
जोड़ने की / कला और आज के बीच
की श्रृंखला / उजियारे और अंधियारे के
बीच का/भेद साफ नज़र आता है.......

ज़ज़्बात

बीती रात बैठा था
खुले आसमाँ के नीचे
अपने साये के साथ
चाँद की उजली चाँदनी
मन के दीप को
उजियारा करती रही,
उसकी रौशनी,
गहन अंधकार चिरती गई
और पैदा करती गई
विश्वास से भरा माहौल,
एहसास ने भी दिखाये
अपने करामात,
जज्बात फूटते चले गए
दीवाली की फुलझड़ियों की तरह...
सुरक्षा का घेरा भी पड़ा,
जीने की रूपरेखा की
आकृति भी दिखी,
मन के भंवर में
डुबते-उतराते से चले गए,
हल्के-हलेके ठंड माहौल में
सिमटी रौशनी और
रौशनी से लिपटा साया
क्षणों में गुजर सा गया
उस जज्बाती बीती रात का
श्रेय किसे दूं
तुम्हीं बोलो ना

सोच

आसमां से सर
टकराने की
असफल कोशिश
करती ईमारतों के महानगर की
एक सड़क

आधी रात में
एक पागल ने
कोहराम मचा
रखा था,

कहे जा रहा था
इन इमारतों को
तुरंत हटाओ
इनने रौशनी
छुपा रखी है,

ये काली चादर हटाओ
इसने
सवेरा रोक रखा है
इन चेहरों को हटाओ
सूरज इनके पीछे
कसमसा रहा है
हवलदार के उसे
ले जाने के बाद
मिश्रित प्रतिक्रिया का
दौर चल पड़ा

सारे पागलों का
एक शहर
अलग से बना
देना चाहिये,

काश....इनकी बातें
सच हो, एक नये युग

की शुरुआत हो....।

ख्वाब

कुछ नहीं
कह पाऊंगा मैं
तुम्हारी शोख आंखें
बोलती रहेंगी
मेरे अंतस मन में
ख्वाब पलते रहेंगे
पलतों में छलकते अश्क
कैसे रोक पाऊंगा मैं।
यादों पर यादें सकुचाती
शरमाती आती रहेंगी
मन-आंगन में।
भोर के स्वप्न को कैसे
भुला पाऊंगा मैं।
दर्द के बादलों का
क्या करूं मैं
तुम्हारी ही कहो
लम्हों की साफ तस्वीर
कहां से लाऊं मैं
जानती हो, हर लम्हा,
हर पल, हर सांस,
किसे टेरती है
अमावस की रात
जरुर आयेगा, मैं मगर
चांद के साये को
कहां ढूंढ पाऊंगा मैं।

दो शब्द

रिश्तों की परिपक्वता
हमेशा से पकती रही
संवेदनाओं के जुड़ने से,
नींव मजबूत तो बनती रही,
ऊँचे अहसासों की
भीनी-भीनी खूशबु से,
आदर्श ही तो बने हैं हमारे संबंध
क्या यह सच नहीं है,
उजली भोर की किरणें ही तो थी
और वह सुखद दिवस ही तो था
जब रिश्तों की आधारशिला
रखी गई थी....
और इस अनजानी-मतवाली
दुनिया में हाथ पे हाथ रखे हम
कहीं दूर निकल पड़े थे.....।

संबंध

बाग में मुस्कराती कली देखूं
शायद
दिल की छलनी में प्रार्थना
बच जायें ।
परिचय की प्रगाढ़ता
शून्य का रहस्य बता जायें।
संवेदना के वृत्त में
हवा के हाथ मिलते
चले जायें।
भौतिक नहीं रुहों के मिलन
का दौर चल जाये।
सोचता हूँ
कहीं कुछ ऐसा हो जाये
सात जन्मों का
एक लेखा बन जाये।

बेताबी

चल बहुत हो चुका
अब गले मिल चलें,
मंदिर-मस्जिद नहीं
दिल को पाक कर चलें,
चल बहुत हो चुका,
कौम की बातों का दौर
खून का रंग सूर्ख लाल
फिर देख चलें,
चल बहुत हो चुका,
अब हाथों की रेखाएं नहीं,
जमाने के सितम देख चलें
चल बहुत हो चुका
आसमां के ख्वाबी
कांच के महल को
एक पत्थर उछाल चलें
चल बहुत हो चुका
तलवार की धार/ गोली की मार
मानवता की बोली
फिर बोल चलें,
कसमसाहट-सी है सीने में
अंधकार में बेटा सूरज
बेताब है रौशनी को
चलों ऐसा कुछ ऐसा कर चलें,
अपने अंदर बैठे खुदा को
फिर ढूंढ चलें......।

‘चंद शब्द’

कुछ और कविताएँ

एक

कब्र में दफन है सारी संभावनाएं
भीगी-भीगी पलकों से
फातिहा पढ़
चला गया कोई।


दो

दर्द के आंसू
पतझड़, डूबती शाम
बेवजह यूं हीं
कोई गमगीन नहीं होता ।

तीन

हर बात पर
आंसुओं का सैलाब
अच्छा नहीं है
क्योंकि इस जमाने में
दर्द का हिसाब
अच्छा नहीं है।

चार

परेशान ना हो
हां ऐसा कुछ कर लो
अपने दर्द का नाम
मुस्कराहट रख लो।

पाँच

आसमान पर लालिमा
नहीं कालिमा छाई है
लो, देखो सूरज
आज भी ठगा गया....।
हर रोज की तरह

चंद शब्दों में

छोटी-छोटी कविताएँ

एक

दिल का
आंसू से
अटूट रिश्तों
कौन नहीं जानता
आँखे जब-जब
नम हुई होंगी,
दिल ने ही
साथ दिया होगा।

दो

उदास मन को
तसल्ली भर का
‘सुकून’ ही
तो दे पाता हूं मैं
जीने के लिये ‘सांसे’
जो जरुरी हैं....।

तीन


सुनहरी शाम से गहराते
अंधियारे पर दोष किसे दूं
खुद को, शाम को या उसे
जिसने बनाया
मुझे भी शाम को भी
और...।

चार


अद्भूत सृष्टि को
निहारती चली आ रही
दृष्टि अलौकिक ही तो है
फिर ऐसा क्यूं / मेरी ही रचना
बेअसर साबित हो रही
है...।

चांद फिर भी तन्हा लगता है

ये कितना सच्चा लगता है
सूरज है फिर भी दिया लगता है।


तन्हाई ने जी भर कर सोचा
वक्त फिर भी छूटा सा लगता है।


सितारों की महफिल में वैठा,
चांद फिर भी तन्हा लगता है।


हाथ पर हाथ फिर मिल चले।
आइने में चेहरा दूसरा लगता है।


जश्न गर्म जोशी से हुआ
आदमी-आदमी से जुदा लगता है।

टूटेसराय की कहानी होने लगी

ग़ज़ल फिर अब मुडने लगी
नियमों की किताब खुलने लगी।

सर्द रातों में जागना उसका
पागलों सी बात होने लगी।

वफा की बात थी और क्या
तारीफ़ की बारिश होने लगी।

दिन ढले पक्षियों का लौटना
टूटेसराय की कहानी होने लगी।

आंखों में अश्क आये जरुर
बहाने की बात होने लगी।

लोग दूसरे शहर का पता पूछने लगे

चलते- चलते कदम अब रुकने लगे,
लम्हें,लम्हों से दोस्ती करने लगे ।

काली सर्द रातों में सिकुड़ना जिंदगी का,
किसी ने धीरे से कहा पतझड़ अब जाने लगे ।

हर तरफ मचा हुआ है शोर,
बेवजह लोग नये चेहरे लगाने लगे ।

कामयाब होती दिखती रही साजिश
लम्हों को सुखे शाख पर ढूँढने लगे ।

दोस्ती का मतवब कितना बदला हुआ लगता,
गले मिल पीठ पर छुरे लगाने लगे ।


गमो से जो बोझिल पलकें भींगने गले
लोग दूसरे शहर का पता पूछने लगे।

लाख संभाला घरौंदे टूटते गये

खुदा के आगे सर झुकाते गये
खुद दूसरों के सर झुकाते गये ।

ख्वाब ऐसे थे मचलने लगा
लाख संभाला घरौंदे टूटते गये ।

सारी जिंदगी गम सीनो में छुपाये रखा
लोग कब्र पर फातिहा पढ़ते गये ।

सरहद पर चाल की आंख मिचौली
वे सीने पर गोली खाते चले गये ।

लाहौर तक दोस्ती हाथ बढ़ाये चली गई
दोस्त सरहद पर बिछाते गये ।

सोची समझी बात, सोचा समझा नतीजा
दुख दर्द कहां राजनीति की चालें चलते गये ।

मंदिर-मस्जिदों पर भीड़ बढ़ने लगी
जैसे-जैसे पाप बढ़ते चले गये ।

संग उनकी याद की तस्कीन थी

रात जाने क्यूं कठिन थी
शाम जो बेहद हसीन थी ।

आईना ने मुस्कराकर बात की
असलियत सचमुच बड़ी संगीन थी ।

आंख मे तिर आई कितनी लालिमा
दर्द की महफ़िल बड़ी रंगीन थी ।

हमने सारी कोशिशें पुरजोर कीं
रौशनी फिर बड़ी ग़मग़ीन थी ।

एक लम्बा सफ़र सन्नाटा बहुत
संग उनकी याद की तस्कीन थी ।

अश्कों की कहानी वफा की बात थी

रोते-रोते तन्हा वो सो गयी
ना जाने फितरत ऐसी हो गयी ।

लब पर आयी बात मुस्कराई
खुद में ही सिमटती चली गयी ।

अश्कों की कहानी वफा की बात थी
बेवफाई की क्या वजह हो गयी ।

मेले में ढूंढती रही तन्हाई
तन्हाई में क्यूं मेले की याद आई ।

वफा तो निभ ही गयी आखिर
अश्क पानी के मोल मिलती गयी ?

लम्हों की बात है, लम्हों में मिट जाना है।

यादों की बातें, ना मेलों का मंजर है,
तन्हा ही है, सिर्फ तन्हा रह जाना है ।

शाखाएं, पंक्षी शांत हो चुके हैं
सूरज को उगना है, ढ़ल जाना है ।

कितना छेड़ोगे धान की बालियों को,
हवा ने मुख मोड़ा है, सबको रुक जाना है ।

महफिल में कहकहे लगते रहेंगे हमेशा,
नज़र को अब चुपचाप निकल जाना है ।

नदियां सूखी हैं, सागर भी सुखा है,
लम्हों की बात है, लम्हों में मिट जाना है।

धूप दूसरे आंगन बैठी

चलते-चलते कदम अब रुकने लगे हैं
अवाम खोखले वादों पर अब रीझने लगे हैं ।

सूरज की रौशनी अब रात का सबब
रातों को दिन लोग अब कहने लगे हैं ।

अच्छे का सिला भी बुरा, बुरे का सिला भी बुरा यहां
जड़ एहसास की खोखली करने में लोग लगे हैं ।

कहीं कोई मंजर देखा और रुक लिये...
तमाशबीनों के कहानी-किस्से भी अब चलने लगे हैं ।

हर एहसास पर निकले आंसू सूखते चले गए
घर में बिखरी चीजों में कुछ ढूंढने लगे हैं ।

कल की बात है, कल ही उजड़ी थी बस्ती
शहर-दर-शहर मकां ढूंढने में लगे हैं ।

सोच, यादों की पैबंद सी लगने लगी है
धूप दूसरे आंगन बैठी, नये मकां अब बने लगे हैं ।

हवा के पर भी अब कतरने लगे हैं

झोंका आया है, हवा ही होगी, चलो सांस ले लें
सुना है, हवा के पर भी अब कतरने लगे हैं ।

आगे की सोच समय के साथ होना होगा
तन्हाईयों के सिलसिले, कुम्हालाने लगे हैं ।

चांद पकड़ने न जा, किसी ने फेंका है कंकड़ पानी में
महफिल में शे’र दूसरे पढ़े अब जाने लगे हैं ।


किस्सा पर-पल की संजीदगी का है
परिवर्तन के दौर में आदमी संगदिल होने लगे हैं ।

था एहसास चांदनी अब भी छत पर टहल रही होगी
चांद कहीं दूर, घरौंदा ढूंढने में अब लगे हैं ।

धूप छीनते बाजार में

दोस्त आज फिर हंस कर मिले
फासले कम हुये फिर भी फासले मिले।

दौरे बन्दिशी थी फिर भी खूश्बु फैली थी
नाबन्दिशी में बाग उजड़े मिले।

चांद सितारों की महफिल में बैठा
सफर में तन्हा कुछ ढूढते मिले।

हक पर हक की बात पुरानी लगने लगी
धूप छीनते बाजार में लोग अब मिले।

गम भी गले लगाया खुशियों की तरह
लोग फिर भी अजनबी कहते मिले ।

पल-पल डूबती जिंदगी

तेरे मेरे बीच का रास्ता अलग हुआ
मेरे शहर चांद, तेरे शहर आइना हुआ।

जीने की राह फिर पकड़ ली उसने
मौत का जिंदगी से सौदा एकतरफा हुआ ।

बीरान शाम में रंगों का खेला हुआ
पल-पल डूबती जिंदगी का जश्न यही हुआ।

जफ़ा की डोर खींची अश्क ना संभले
जीने की राह में कुछ ऐसा सच-सच हुआ।

भीड़ भरे शहर में गली का पता

अखबार की सुर्खियों में छा गया हूँ मैं
निगाहों की बातों का राज बता गया हूँ मैं।

जद्दो जहद रही है दोस्तों में अब की बार
भीड़ भरे शहर में गली का पता बता गया हूँ मैं।

कहानी किसी इश्तहार के कम नहीं लगती अब
दर्द के सागर को खुद में समेटने लगा हूँ मैं।

निगाह से निगाह की बातों का दौर कहां
बारिश में भीग कर ठिठुरने लगा हूँ मैं।

जज्बातों की बारिश पैर फिसलना भर था
पागलों का जामा पहनाया गया हूँ मैं।

समन्दर के आंसू पोंछ जाऊंगा मैं

कहानी कुछ कह ही जाऊंगा मैं
लम्हों की जुबानी सुना जाऊंगा मैं।

शोख शरारत और चांद सा चेहरा
आंखों से समन्दर की थाह पा जाऊंगा मैं।

दर्द सिमट ना सका सीने में
दर्द के आंसू से दामन धो जाऊंगा मैं।

नज्म तो फिर बन ही जायेगी
महफिल में फिर नहीं गज़ल गाऊंगा मैं।

समन्दर के आंसू देखे किसने हैं
समन्दर के आंसू पोंछ जाऊंगा मैं ।

आंखों ने धो डाले दाग दिल के
दिल की कहानी नहीं सुनाऊंगा मैं।

आईने से फिर कुछ पूछने लगा है

शोर बहुत मचा हुआ है
इश्तहारों सा वो छपा हुआ है।

तबियत अब की कुछ हुआ है।
राह चलते वो डरने लगा है।

शहर वीरान, गलियां खामोश
बेवजह, वो मुस्कराने लगा है।

आइने ने कही कहानी फिर कुछ,
आईने से फिर कुछ पूछने लगा है ।

पन्नों पर चलते हाथ रुकने लगे
बिखरे पन्नों को फिर समेटने लगा है।

फूलों की किस्मत क्या कुछ ऐसी
कहीं मंदिर पतझड़ की भेंट चढ़ने लगा है।

यहां सियासती चाल ही कुछ ऐसी
हर शख्त शकुनी बनने लगा है।

दर्द की कहानी

चांद जमीं पर चलने लगा है
क्यूं फिर आसमां ताकने लगा है।

सिर्फ चार बातें नज़रों की
तन्हाई की क्यूं बात करने लगा है।

बेवजह फिर दोस्ती के हाथ बढ़ चले
खंजर का लहू अब सूखने लगा है।

दर्द की कहानी लम्हें दोहरायेंगे
लम्हों का दर्द से वास्ता कब से होने लगा है।