रात्रि-पहर,
सोच की कलम लिए
दृश्यदर्पण में गुम,
सफेद कोरे पन्ने पर
घूमती कलम,
कोई कविता नहीं
सारहीन भावनाएं
आत्मसात करती रहीं
सोच की उजली आंखें
भोर के साथ भीड़ में कहीं
खोती सी चली गईं .....।
Friday, December 1, 2006
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