Friday, December 1, 2006

बेताबी

चल बहुत हो चुका
अब गले मिल चलें,
मंदिर-मस्जिद नहीं
दिल को पाक कर चलें,
चल बहुत हो चुका,
कौम की बातों का दौर
खून का रंग सूर्ख लाल
फिर देख चलें,
चल बहुत हो चुका,
अब हाथों की रेखाएं नहीं,
जमाने के सितम देख चलें
चल बहुत हो चुका
आसमां के ख्वाबी
कांच के महल को
एक पत्थर उछाल चलें
चल बहुत हो चुका
तलवार की धार/ गोली की मार
मानवता की बोली
फिर बोल चलें,
कसमसाहट-सी है सीने में
अंधकार में बेटा सूरज
बेताब है रौशनी को
चलों ऐसा कुछ ऐसा कर चलें,
अपने अंदर बैठे खुदा को
फिर ढूंढ चलें......।

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