Sunday, December 17, 2006

अपनी बात

उस दौर के अंत के पहले के पहलुओं को आज जब भी यादों की खुरपी से कुरेदता हूं, ऐसा लगता है लम्हा ठहर गया है । दर्दनाक हादसों की एक भयावह तस्वीर के साये कहीं न कहीं पास से निकल रहे हैं । शायद, तब जिंदगी को हल्के तौर पर लेने का प्रयास करता रहा है । ऐसा लगता था बांसूरी में फूंक मारकर संगीत को बस में कर लो । संवेदना, एहसास तो जैसे जाती दुश्मनों में एक थे । महत्वाकांक्षा अपने पंख फैलाये पूरी शक्ति से आसमां से जैसे चांद तोड़ लाना चाहती थी । कहते हैं न सपने बूरे-अच्छे टूटते तो हैं ही । ये मेरे लिये क्या मेरी जिंदगी के लिये सुकून वाली बात रही । लम्हा, वक्त, जगह शायद सही-सही पहचान न करा सकें लेकिन ये बात सच है । दर्द अपनी चरम सीमा पर पहूँचकर कोई रास्ते की तलाश कर रहा था । कलम जब उठी तो लगा जैसे भूचाल आ गया । दर्द ने तो जैसे पंत्तिबद्ध होने की तैयारी कर ली थी । जब-जब मन खराब होता है । यह तो मेरे जानने-पहचानने वालों में से एक हो गये हैं । मुझसे ऐसा व्यवहार रखते हैं जैसे कोई नन्हा सा बच्चा चलना सीख रहा है । मैं कृतज्ञ हूं इनका जिन्होंने मेरी जिंदगी की ऊंगली पकड़ी और मुखौटे वाली दुनिया में खड़े होने में मदद की । सचमुच जब-जब भी चिंतन में डूबता हूँ जिंदगी का भारीपन असहनीय सा हुआ जाता है लिकन सच से भागकर अब आईने से नजर चुराना नहीं चाहता । हर दर्द, गम, एहसास को पुरी शिद्दत से महसूस करना चाहता हूँ । कुछ सोच, कुछ विचार लेकर आपके समक्ष हूं । जानता हूँ, इस देश ने महान काव्य विभूतियों को जन्म देकर उनकी कृतियों का सम्पूर्ण विश्व में सम्मान कराया । मैं उन तमाम विभूतियों को इस संकलन के माध्यम से प्रणाम करता हूँ और उनके आशीर्वचनों को साध लेकर कुछ खास नहीं सिर्फ दस्तक देने का प्रयास कर रहा हूं । मेरे सारे मित्र, मेरा परिवार खास मधु का जिक्र करना चाहूंगा जिनके प्रयास से यह संकलन आप तक पहूंचाने में सफल रहा हूं ।

दर्द के आंसू, पतझड़, डूबती शाम
बेवजह, यूं ही कोई सार नहीं बनता

- अनूपम वर्मा

1 comment:

उन्मुक्त said...

काले पर सफेद रंग तो पढ़ा जाता है पर काले पर लाल रंग नहीं।