Friday, December 1, 2006

धूप दूसरे आंगन बैठी

चलते-चलते कदम अब रुकने लगे हैं
अवाम खोखले वादों पर अब रीझने लगे हैं ।

सूरज की रौशनी अब रात का सबब
रातों को दिन लोग अब कहने लगे हैं ।

अच्छे का सिला भी बुरा, बुरे का सिला भी बुरा यहां
जड़ एहसास की खोखली करने में लोग लगे हैं ।

कहीं कोई मंजर देखा और रुक लिये...
तमाशबीनों के कहानी-किस्से भी अब चलने लगे हैं ।

हर एहसास पर निकले आंसू सूखते चले गए
घर में बिखरी चीजों में कुछ ढूंढने लगे हैं ।

कल की बात है, कल ही उजड़ी थी बस्ती
शहर-दर-शहर मकां ढूंढने में लगे हैं ।

सोच, यादों की पैबंद सी लगने लगी है
धूप दूसरे आंगन बैठी, नये मकां अब बने लगे हैं ।

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