कैसा रुप, कैसी काया
सूरज अपनी ही किरण
से शरमाया
सितारों की महफिल में
मातम सा-छाया
चांद तन्हा ही कहीं
दूर निकल आया
हवा के पंख
कटे से लगने लगे
सच मानों कलम से
दूर भागने लगे
राजनीति सिद्धांतों से
दूर कहीं जाने लगी
आदमी खुद से ही
चेहरे छुपाने लगे
मुस्कुराहट के किस्मों के
तो जैसे बाजार लगने लगे
झूठ, सच को अपने
आईने दिखाने लगे
अपेक्षा की सार्थकता के
अंश भी विलुप्त होने लगे
विश्वास तो जैसे एक दौर
की बात हो गये ।
समय के साथ परिपक्वता
तो स्वाभाविकता का परिचय है,
लेकिन अर्थ, अविश्वास,
महत्वकांक्षा, संवेदनहीनता
के बोझ लिये लोग
समय के साथ क्या सचमुच
परिपक्व हुए जा रहे हैं
या यह कोई एक युग
बदलने का सूचक है.......।
Friday, December 1, 2006
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