Friday, December 1, 2006

सफ़र

बंद कमरे में,
तेल कम होते
दिये के बीच,
बीतते क्षणों के बीच
स्थिर आंखें,
पंखा मजबूरीवश
घड़ी की टिक-टिक से
काफी पीछे, थका हुआ
भागता रहा
सूरज का उगना,
सूरज का डूब जाना,
एहसास समानांतर सा है,
कमरे के बीच की टहल
सोच, सामर्थ्य की
पराकाष्ठा को छूती है
शून्य से शून्य का सफर
फिर भी जारी है......

.....निरंतर जारी है ।

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