Friday, December 1, 2006

मेला

मेले में
साफगोई की बात
नहीं कर रहा कोई,
दिशाहीन होते को
पकड़ रहा नहीं कोई,
मेले की थकान में
चाट और गुपचुप खाता
कुछ भूल रहा कोई,
हवाई-झूले की ऊंचाई देखती
दो आंखें,
जगमगाते मंजर में
हजारों वोल्ट के करंट
को दौड़ते देखती
दो आँखें,
भीड़ में अपने को तलाशती दो आँखें
शायद उत्सवों की तरह
हवा को पकड़ने की बात
कर रहा है कोई ...।

1 comment:

जयप्रकाश मानस said...

अनुपम जी । आपकी यह कविता मेरे ध्यान से गुज़री । मुझे काफी अच्छा लगा । Realy You are doing good work in Poetry. Thanks. Ramdin, London