शोर बहुत मचा हुआ है
इश्तहारों सा वो छपा हुआ है।
तबियत अब की कुछ हुआ है।
राह चलते वो डरने लगा है।
शहर वीरान, गलियां खामोश
बेवजह, वो मुस्कराने लगा है।
आइने ने कही कहानी फिर कुछ,
आईने से फिर कुछ पूछने लगा है ।
पन्नों पर चलते हाथ रुकने लगे
बिखरे पन्नों को फिर समेटने लगा है।
फूलों की किस्मत क्या कुछ ऐसी
कहीं मंदिर पतझड़ की भेंट चढ़ने लगा है।
यहां सियासती चाल ही कुछ ऐसी
हर शख्त शकुनी बनने लगा है।
Friday, December 1, 2006
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