Friday, December 1, 2006

कोख

आसमानी बादल
नशे में झूम रहा था
कोई भंवरा,
नई रौशनी में डोल रहा था
झलमिलाते बाग में कली
सखियों के संग खेल रही थी
बालों में चोटी डाले
झूले में झूल रही थी
यौवन को
लजाते हुए ढ़क रही थी
भंवरा सुगंध में
मन-मगन हो चला थी
कली के सामीप्य में
सुध-बुध खो चला था
सावन भी स्वप्नों की
सेज सजा चला था
आसमानी भीगते बादल में
आग भी शोला बन चली थी
मिलन की बेला आ चुकी थी
कली, फूल वन का
महक उठी थी
प्यार का प्रसाद कोख
से बाहर आया था
नौ महीनों में
सोच का दायरा लाया था
दिये मुस्कुरा नहीं डबडबा रहे थे
बादल कुछ ज्यादा भीगे थे
आंखों में मोती नही
खूनी धारियां दिखीं थी
हस शीश पर
तलवार की धार लगी थी
कोख ने दिया हमेशा
प्रसाद प्यार का
फिरे ये क्या हुआ ?
सोचना होगा, सोचेंगे
गहराई से फिर हम,
क्या कोख से अब सिर्फ
नफरत की आस करेंगे हम...।

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