थी वो ऐसी मनचली,
हंसी-ठिठोली में,
विकट रूप लेती परी,
पत्थर का सर फोड़ चलीं,
धाराएं अपनी मोड़ चलीं,
कहीं झील में जाकर
गुनगुनाईं वो,
झरनों की कल-कल में
ग़ज़ल पढ़ी वो
खून से सने हाथ देख,
पत्थर यो सोचता खड़ा रहा,
क्यूं अपनी तासीर का
दूसरा पहलू लिए
भ्रम में पड़ा रहा ........।
Friday, December 1, 2006
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment